Wednesday, November 28, 2018

पाठकों के दिल को जो छू ले: "मधुकर और मैं..."


वैसे तो मैं कोशिश करता हॅूं कि प्रत्येक वर्ष कम से कम 50 पुस्तकें पढ लूं। इस दृष्टिकोण से 2018 का वर्ष निराशाजनक रहा है। मैं लगभग दस पुस्तक ही पढ़ पाया होगा। परन्तु इन दस में से कुछ पुस्तकें अविस्मरणीय हैं, और उनमें एक है कुसुम तिवारी की कविताओं का संग्रह, 'मधुकर और मैं...'
एक समय था जब मैं बहुत कविताएं पढ़ता था, परन्तु पिछले कुछ सालों में उसमें बहुत कमी आयी है और उसका कारण उपन्यास और प्रेरणादायी पुस्तकें हैं। एक कारण और है कि ऑनलाइन इतनी कविताएं पढ़ने का मिल जाती है कि पुस्तक खरीदने की नौबत ही नहीं आती। परन्तु किसी कवि के बारे में कोई राय बनाने के लिए आपकों उनकी सारी रचनाओं को या जितनी भी हो सके, एक साथ, तन्मयता के साथ पढ़ना होता है।
"मधुकर और मैं..." शुरू करते ही मैं इसमें ऐसे खोया कि याद ही न रहा कितने पृष्ठ पढ़ डाला एक बार में। "मधुकर की व्यथा" से शुरू हुई थी बात और "गोपियों की याचना" पर आ गई: "सोलह सहस्त्र बृज बालाएँ
थी खड़ी भुजाएँ फैलाएँ
अंगों का कर स्पर्श मधुर
था दिया वचन तुमने मधुकर"

कुछ याद आया आपको? मुझे ऐसा लगा कि मैं सूरदास का उद्धव-गोपी संवाद पढ़ रहा हॅूं और गोपियां उद्धव से कह रही हैं,   
"अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी ।
देख्यौ चाहतिं कमलनैन कौं, निसि-दिन रहतिं उदासी ॥

भाव चाहे वही हो, भाषा की नूतनता लुभावनी है। यही कारण है कि संग्रह की शुरूआत में ही आप मधुकर के प्यार में डूब जाते हैं और किसी गोपी की विरह बार-बार आपको उद्वेलित करती है।  
कहीं तो ऐसा लगा कि एक दूसरी मीरा बाई से मिल रहा हूं जो मधुकर के प्यार में फिर से सुधबुध खो बैठी है:
इन उठती गिरती साँसों के
स्पंदन का मूल्य चुकाना है,
निराकार में लय होने से
पूर्व मुझे अपनाना है,
हे...मधुकर तुमको आना है.....

इस प्रेमालाप में विघ्न तब आया जब अचानक "मैं" और उसकी दुनिया बीच में आ गई:
मैं आईना हूँ
मुझमें तुम्हें अपना
हर वो रंग नजर आएगा...

और ऐसे में मुझे मधुकर से दूर जान बहुत खला। पर यह सही भी है क्योंकि जीवन मधुकर से परे भी है और इस मैं में दुःख-सुख से भरी एक विशाल दुनिया है:
ली करवट हवा ने अचानक यॅूं सहसा।
सम्हल भी ना पाई लगा घाव ऐसा।
गिरी टूटकर वो जमीं पर कुछ ऐसे।
गिरा हो धरा पर गगन चाँद जैसे।  

बदलती हवा कुछ भी ला सकती है। वह प्यार, महोब्‍बत के बदले त्रासदी, दु:ख, वेबफाई, दर्द भी ला सकती है:
"फि़र दर्पण कोई टूटा है
फ़िर ख्‍वाब किसी का टूटा है...
भाषाई दृष्टिकोण से तो मैंने इसे पढ़ा ही नहीं या कभी मुझे उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। कुसुम जी हिन्दी की प्रोफेसर हैं, पर भाषा की सरलता और तरलता में उनकी विद्वता कहीं बाधा नहीं बनती है। कविताएं पहाड़ी नदियों की तरह बड़ी सरलता के साथ-साथ कलकल करती, बाधाओं से टकराती बहती जाती हैं और कहीं अचानक खाई आ जाने पर निर्मल झरने की गुनगुनाहट ही नहीं बल्कि मधुर दृश्य भी उत्पन्न करती है।
कविता प्रेमियों के लिए "मधुकर और मैं..." सचमुच सब रसों से परिपूर्ण एक दावत है, मैं तो यही कहूंगा कि आप हरगिज इंकार न करें। यह रहा उनका निमंत्रण:  
"कवयित्री नहीं हॅूं मैं
स्नेह और प्यार रखती हॅूं
पाठकों के दिल को जो छू ले
वो भावों का संसार रखती हॅूं...


एक पाठक के रूप में कुसुम जी को बहुत-बहुत बधाई देता हॅूं और उम्मीद करता हॅूं कि जल्द ही उनकी और रचनाएं पढ़ने को मिलेगी।